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पतंजलि योग सूत्र | भाग 1 Patanjali Yog Sutra
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पतंजलि योग दर्शन समाधि
पाद
प्रथम अथ
योगासनम अब परंपरागत योग विषयक शास्त्र
आरंभ करते
हैं
व्याख्या इस सूत्र में महर्षि पतंजली ने
योग के साथ अनुशासन पद प्रयोग करके योग
शिक्षा की अनादि सूचित की है और अथ शब्द
से उसके आरंभ करने की प्रतिज्ञा करके योग
साधना की कर्तव्य सूचित की
है
संबंध इस प्रकार के योगशास्त्र के वर्णन
की प्रतिज्ञा करके अब योग के सामान्य
लक्षण बतलाते
हैं योग चित वृत्ति निरोध
चित्त की वृत्तियों का
निरोध यानी सर्वथा रुक जाना योग
है इस ग्रंथ में प्रधानता से चित्त की
वृत्तियों के निरोध को ही योग नाम से कहा
गया
है योग शब्द की परिभाषा करके अब उसका
सर्वोपरि फल बतलाते
हैं तदा दृष्ट सर्व रूपे
[संगीत]
स्थानम जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो
जाता
है उस समय दृष्टा आत्मा की अपने स्वरूप
में स्थिति हो जाती
है अर्थात वह कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो
जाता
है
संबंध क्या चित्त वृत्तियों का निरोध होने
के पहले दृष्टा अपने स्वरूप में स्थित
नहीं
रहता इस पर कहते
हैं वृत्ति सारू प्यम
मित जब तक योग साधनों के द्वारा चित्त की
वृत्तियों का निरोध नहीं हो जाता तब तक
दृष्टा अपने चित्त की वृत्ति के ही अनुरूप
अपना स्वरूप समझता रहता
है उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान
नहीं
होता
अतः चित्त वृत्ति निरोध रूप योग अवश्य
कर्तव्य
है
संबंध चित्त की वृत्तियां असंख्य होती हैं
अतः उनको पांच श्रेणियों में बांटकर सूत्र
का उनका स्वरूप बतलाते
हैं वृत पंच तय क्लिष्ट
क्लिष्ट उपर्युक्त
क्लिष्ट और अक्लिश भेदों वाली वृत्तियां
पांच प्रकार की होती
हैं यह चित्त की वृत्तियां आगे वर्णन किए
जाने वाले लक्षणों के अनुसार पांच प्रकार
की होती हैं तथा हर प्रकार की वृत्ति के
दो भेद होते
हैं एक तो
क्लिष्ट यानी अविद्या आदि क्लेश को पुष्ट
करने वाली और योग साधन में विघ्न रूप होती
है और दूसरी अ क्लिष्ट यानी क्लेश को क्षय
करने
वाली और योग साधन में सहायक होती
है साधक को चाहिए कि इस रहस्य को भली भाति
समझकर
पहले अक्लिश वृत्तियों से क्लिष्ट
वृत्तियों को
हटाए फिर उन अक्लिश वृत्तियों का भी निरोध
करके योग सिद्ध
करें संबंध उक्त पांच प्रकार की वृत्तियों
के लक्षणों का वर्णन करने के लिए पहले
उनके नाम बतलाते
हैं प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा
स्मृत पहला
प्रमाण दूसरा विपर
तीसरा
विकल्प चौथा
निद्रा पांचवा
स्मृति इन पांचों के स्वरूप का वर्णन
स्वयं सूत्र का ने अगले सूत्रों में किया
है अतः यहां उनकी व्याख्या नहीं की गई
है उपर्युक्त पांच प्रकार की वृत्तियों
में से प्रमाण वृत्ति के भेद बतलाए जाते
हैं प्रत्यक्षा अनुमाना गम
प्रमाणात
अनुमान और
आगम यह तीन प्रमाण
है प्रमाण वृत्ति तीन प्रकार की होती है
उसको इस प्रकार समझना
चाहिए पहला प्रत्यक्ष
प्रमाण बुद्धि मन और इंद्रियों के जानने
में आने वाले
जितने भी पदार्थ
हैं उनका अंतःकरण और इंद्रियों के
साथ बिना किसी व्यवधान के संबंध होने
से जो भ्रांति तथा संशय रहित ज्ञान होता
है प्रत्यक्ष अनुभव से होने वाली प्रमाण
वृत्ति
है जिन प्रत्यक्ष दर्शनों से संसार के
पदार्थों की क्षण भंगुरता का निश्चय होकर
या सब प्रकार से उनमें दुख की प्रतीति
होकर मनुष्य का सांसारिक पदार्थों में
वैराग्य हो जाता
है जो चित्त की वृत्तियों को रोकने में
सहायक
हैं जिनसे मनुष्य की योग साधन में श्रद्धा
और उत्साह बढ़ते
हैं उनसे होने वाली प्रमाण वृत्ति तो अ
क्लिष्ट
है तथा
जिन प्रत्यक्ष दर्शनों से मनुष्य को
सांसारिक
पदार्थ नित्य और सुख रूप होते
हैं भोगों में आसक्ति हो जाती है जो
वैराग्य के विरोधी भावों को बढ़ाने वाले
हैं उनसे होने वाली प्रमाण वृत्ति क्लिष्ट
है दूसरा अनुमान
प्रमाण किसी प्र प्रत्यक्ष दर्शन के
सहारे युक्तियों द्वारा जो अप्रत्यक्ष
पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान होता
है वह अनुमान से होने वाली प्रमाण वृत्ति
है जैसे धूम को देखकर अग्नि की विद्यमान
का ज्ञान
होना नदी में बाढ़ आई देखकर दूर देश में
बारिश होने का ज्ञान होना
इत्यादि इतने में भी जिन अनुमानों से
मनुष्य को संसार के पदार्थों की
अनित्य दुख रूपता आदि दोषों का ज्ञान होकर
उनमें वैराग्य होता
है और योग के साधनों में श्रद्धा बढ़ती
है जो आत्म ज्ञान में सहायक
हैं वे सब वृत्तियां तो अ क्लिष्ट
हैं और उनके विपरीत वृत्तियां क्लिष्ट हैं
तीसरा आगम
प्रमाण वेद शास्त्र और
आप्त यानी यथार्थ वक्ता पुरुषों के वचन को
आगम कहते
हैं जो पदार्थ मनुष्य के अंतःकरण और
इंद्रियों के प्रत्यक्ष नहीं है एवं जहां
अनुमान की भी पहुंच नहीं
है उसके रूप का
ज्ञान वेद शास्त्र और महापुरुषों के वचनों
से होता
है वह आगम से होने वाली प्रमाण वृत्ति
है जिस आगम प्रमाण से मनुष्य का भोगों में
वैराग्य होता है और योग साधनों में
श्रद्धा उत्साह बढ़ते
हैं वह तो अक्लिश
है और जिस आगम प्रमाण से भोगों में
प्रवृत्ति और योग साधनों में अरुचि
हो जैसे स्वर्ग लोक के भोगों की बढाई
सुनकर उनमें और उनके साधन रूप सकाम कर्मों
में आसक्ति और प्रवृत्ति होती
है वह क्लिष्ट
है प्रमाण वृत्ति के भेद बतला करर अब
विपर्यय वृत्ति के लक्षण बतलाते
हैं विपर्यय मिथ्या ज्ञानम त दूप
प्रतिष्ठित नहीं है ऐसा मिथ्या ज्ञान
विपर्यय
है
व्याख्या किसी भी वस्तु के असली स्वरूप को
ना समझकर
उसे दूसरी ही वस्तु समझ
लेना यह विपरीत ज्ञान ही विपर्यय वृत्ति
है
जैसे सीप में चांदी की
प्रतीति यह वृत्ति भी यदि भोगों में
वैराग्य उत्पन्न करने
वाली और योग मार्ग में श्रद्धा उत्साह
बढ़ाने वाली हो तो अक्लिश है अन्यथा
क्लिष्ट
है जिन इंद्रिय आदि के द्वारा वस्तुओं का
यथार्थ ज्ञान होता है उन्हीं से विपरीत
ज्ञान भी होता
है यह मिथ्या ज्ञान भी कभी-कभी भोगों में
वैराग्य करने वाला हो जाता
है जैसे भोग्य पदार्थ की क्षण भंगुरता को
देखकर अनुमान करके या सुनकर उनको सर्वथा
मिथ्या मान
लेना योग सिद्धांत के अनुसार विपरीत
वृत्ति
है क्योंकि वे परिवर्तन शील होने पर भी
मिथ्या नहीं
है तथापि यह मान्यता भोगी में वैराग्य
उत्पन्न करने वाली होने से अक्
है कुछ महानुभव के मतानुसार विपर्यय
वृत्ति और
अविद्या दोनों एक ही
हैं परंतु यह युक्ति संगत नहीं मालूम
होता क्योंकि अविद्या का नाश तो केवल
अंप्र ज्ञात योग से ही होता है जहां
प्रमाण वृत्ति भी नहीं
रहती किंतु विपर्यय वृत्ति का नाश तो
प्रमाण वृत्ति से ही हो जाता
है इसके सिवा योगशास्त्र के मतानुसार
विपर्यय ज्ञान चित्त की वृत्ति
है किंतु अविद्या चित्त वृति नहीं मानी गई
है क्योंकि वह दृष्टा और दृश्य के स्वरूप
की उपलब्धि में हेतु भूत संयोग का भी कारण
है तथा अस्मिता और राग आदि क्लेश का भी
कारण
है इसके अतिरिक्त प्रमाण वृत्ति में
विपर्यय वृत्ति नहीं
है परंतु द्वेष आदि क्लेश का वहां भी
सद्भाव
है इसलिए भी विपर्यय वृत्ति और अविद्या की
एकता नहीं हो
सकती क्योंकि विपर्यय वृत्ति तो कभी होती
है और कभी नहीं
होती किंतु अविद्या तो कैवल्य अवस्था की
प्राप्ति तक निरंतर विद्यमान रहती
है उसका नाश होने पर तो सभी वृत्तियों का
धर्मी स्वयं चित्त भी अपने कारण में विलीन
हो जाता
है परंतु प्रमाण वृत्ति के समय विपर्यय
वृत्ति का अभाव हो जाने पर
भी ना तो राग द्वेष का नाश होता
है तथा ना दृष्टा और दृश्य के संयोग का
ही इसके सिवा प्रमाण वृत्ति क्लिष्ट भी
होती
है परंतु जिस यथार्थ ज्ञान से अविद्या का
नाश होता है वह क्लिष्ट नहीं
होती अतः यही मानना ठीक है कि चित्त का
धर्म रूप विपर्यय वृत्ति अन्य पदार्थ
है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारण
रूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न
है
संबंध अब विकल्प वृत्ति के लक्षण बतलाए
जाते
हैं शब्द ज्ञाना अपा वस्तु शून्य
[संगीत]
विकल्प जो ज्ञान शब्द जनित ज्ञान के
साथ-साथ होने वाला
है और जिसका विषय वास्तव में नहीं है वह
विकल्प है
व्याख्या केवल शब्द के आधार पर बिना हुए
पदार्थ की कल्पना करने वाली जो चित्त की
वृत्ति है वह विकल्प वृत्ति
है यह भी यदि वैराग्य की वृद्धि में
हेतु योग साधनों में श्रद्धा और उत्साह
बढ़ाने वाली तथा आत्म ज्ञान में सहायक
हो तो अक् है
अन्यथा क्लिष्ट
है आगम प्रमाण जनित वृत्ति से होने वाले
विशुद्ध संकल्पों के सिवा सुनी सुनाई
बातों के आधार पर
मनुष्य जो अनेक प्रकार के व्यर्थ संकल्प
करता रहता
है उन सबको विकल्प वृत्ति के ही अंतर्गत
समझना
चाहिए विपर्यय वृत्ति में तो विद्यमान
वस्तु के स्वरूप का विपरीत ज्ञान होता
है और विकल्प वृत्ति में अ विद्यमान वस्तु
की शब्द ज्ञान के आधार पर कल्पना होती
है यही विपर्यय और विकल्प का भेद
है जैसे कोई मनुष्य सुनी सुनाई बातों के
आधार पर अपनी मान्यता के अनुसार भगवान के
रूप की कल्पना करके भगवान का ध्यान करता
है पर जिस स्वरूप का वह ध्यान करता है उसे
ना तो उसने देखा
है ना वेद शास्त्र सम्मत
है और ना वैसा कोई भगवान का स्वरूप वास्तव
में है
ही केवल कल्पना मात्र ही
है यह विकल्प वृत्ति मनुष्य को भगवान के
चिंतन में लगाने वाली होने से अक्लिश
है दूसरी जो भोगों में प्रवृत करने वाली
विकल्प वृत्तियां हैं वे क्लिष्ट
हैं इसी प्रकार सभी वृत्तियों में क्लिष्ट
और अक् का भेद समझ लेना
चाहिए अब निद्रा वृत्ति के लक्षण बतलाए
जाते हैं
अभाव
प्रत्यावर्ती
निद्रा अभाव के ज्ञान का
अवलंबन यानी ग्रहण करने वाली वृत्ति
निद्रा
है जिस समय मनुष्य को किसी भी विषय का
ज्ञान नहीं
रहता केवल मात्र ज्ञान के अभाव की ही
प्रतीति रहती
है वह ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्त
वृत्ति के आश्रित रहता है वह निद्रा
वृत्ति
है निद्रा भी चित्त की वृत्ति विशेष
है तभी तो मनुष्य गाढ़ निद्रा से उठकर
कहता है कि मुझे आज ऐसी गाढ़ निद्रा
आई जिसमें किसी बात की कोई खबर नहीं
[संगीत]
रही इस स्मृति वृत्ति से ही यह सिद्ध होता
है कि निद्रा भी एक वृत्ति
है नहीं तो जगने पर उसकी स्मृति कैसे
होती निद्रा भी क्लिष्ट और अक्लिश दो
प्रकार की होती
है जिस निद्रा से जगने पर साधक के मन और
इंद्रियों में सात्विक भाव भर जाता
है आलस्य का नामो निशान नहीं रह
तथा जो योग साधन में उपयोगी और आवश्यक
मानी गई है वह अ क्लिष्ट
है दूसरे प्रकार की निद्रा उस अवस्था में
परिश्रम के आभाव का बोध
कराकर विश्राम जनित सुख में आसक्ति
उत्पन्न करने वाली होने से क्लिष्ट
है अब स्मृति वृत्ति के लक्षण बतलाए जाते
हैं अनुभूत विषयात प्रमो श
स्मृति अनुभव किए हुए विषय का ना
छिपना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति
है उपर्युक्त
प्रमाण विपर्यय
विकल्प और
निद्रा इन चार प्रकार की वृत्तियों द्वारा
अनुभव में आए हुए विषयों के जो संस्कार
चित्त में पड़े
हैं उनका पुनः किसी निमित्त को पाकर
स्फुरद हो जाना ही स्मृति
है उपर्युक्त चार प्रकार की वृत्तियों के
सिवा इस स्मृति वृत्ति से जो संस्कार
चित्त पर पड़ते
हैं उनमें भी पुनः स्मृति वृत्ति उत्पन्न
होती
है स्मृति वृत्ति भी क्लिष्ट और अक्लिश
दोनों ही प्रकार की होती
है जिस स्मरण से मनुष्य का भोगों में
वैराग्य होता
है तथा जो योग साधनों में श्रद्धा और
उत्साह बढ़ाने वाला एवं आत्म ज्ञान में
सहायक
है वह तो अक्
है और जिससे भोगों में राग द्वेष बढ़ता है
वह क्लिष्ट है
स्वप्न को कोईकोई स्मृति वृत्ति मानते
हैं परंतु स्वप्न में जागृत की भांति सभी
वृत्तियों का आविर्भाव देखा जाता
है अतः उसका किसी एक वृत्ति में अंत भाव
मानना उचित प्रतीत नहीं
[संगीत]
होता
संबंध यहां तक योग की
कर्तव्य योग के लक्ष
और चित्त वृत्तियों के लक्षण बतलाए
गए अब उन चित्त वृत्तियों के निरोध का
उपाय बतलाते
हैं अभ्यास वैराग्य ब्याम तन
निरोध उन चित्त वृत्तियों का
निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता
है चित्त की वृत्तियों का सर्वथा निरोध
करने के लिए
अभ्यास और
वैराग्य यह दो उपाय
हैं चित्त वृत्तियों का प्रवाह परंपरागत
संस्कारों के बल
से सांसारिक भोगों की ओर चल रहा
है उस प्रवाह को रोकने का उपाय वैराग्य है
और उसे कल्याण मार्ग में ले जाने का उपाय
अभ्यास
है उक्त दोनों उपायों में से पहले अभ्यास
का लक्षण बतलाते
हैं तत्र स्थित यत्न
ब्यास उन दोनों में से चित्त की स्थिरता
के लिए जो प्रयत्न करता
है वह अभ्यास
है जो स्वभाव से ही चंचल है ऐसे मन को
किसी एक धय में स्थिर करने के लिए बारंबार
चेष्टा करते रहने का नाम अभ्यास
है इसके प्रकार शास्त्रों में बहुत बतलाए
गए
हैं इसी पाद के 32 में सूत्र से 39 व तक
अभ्यास के कुछ भेदों का वर्णन
है उनमें से जिस साधक के लिए जो सुगम हो
जिसमें उसकी स्वाभाविक रुचि और श्रद्धा हो
उसके लिए वही ठीक
है अब अभ्यास के दृढ़ होने का प्रकार
बतलाते
हैं सत दीर्घ काला निरंतर सत्कार सेवित
दृढ़
भूमि परंतु वह अभ्यास बहुत काल तक
निरंतर लगातार और आदर पूर्वक सांगोपांग
सेवन किया जाने पर दृढ़ अवस्था वाला होता
है
व्याख्या अपने साधन के अभ्यास को दृढ़
बनाने के लिए साधक को चाहिए कि साधन में
कभी उकता है
नहीं यह दृढ़ विश्वास रखें कि किया हुआ
अभ्यास कभी भी व्यर्थ नहीं हो
सकता अभ्यास के बल से मनुष्य निसंदेह
अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता
है यह समझकर अभ्यास के लिए काल की अवधि ना
रखे आजीवन अभ्यास करता
रहे साथ ही यह भी ध्यान
रखें कि अभ्यास में व्यवधान अंतर ना पढ़ने
पाए लगातार अभ्यास चलता
रहे और अभ्यास में तुच्छ बुद्धि ना करें
उसकी अवहेलना ना
करें बल्कि अभ्यास को ही अपने जीवन का
आधार बनाकर अत्यंत आदर और प्रेम पूर्वक
उसे सांगोपांग करता
रहे इस प्रकार किया हुआ अभ्यास दृढ़ होता
है अब अभ्यास के लक्षण आरंभ करते
हुए पहले अपर वैराग्य के लक्षण बतलाते हैं
दृष्टा श्र विक विषय वि तृष्ण स्य वशी का
संजा
वैराग्यं देखे और सुने हुए विषयों में
सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की जो वकार नामक
अवस्था है वह वैराग्य
है अंतःकरण और इंद्रियों के द्वारा
प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले इस लोक के
समस्त भोगों का समाहार
यहां दृष्ट शब्द में किया गया
है और जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है जिनकी
बड़ाई वेद शास्त्र और भोगों का अनुभव करने
वाले पुरुषों से सुनी गई है ऐसे भोग्य
विषयों का समाहार आनु श्र विक शब्द में
किया गया
है उपर्युक्त दोनों प्रकार के भोगों से जब
चित्त भली भात तृष्णा रहित हो जाता
है जब उसको प्राप्त करने की इच्छा का
सर्वथा नाश हो जाता
है ऐसे कामना रहित चित्त की जो वशी का
नामक अवस्था विशेष है वह अपर वैराग्य
है अब पर वैराग्य के लक्षण बतलाते
हैं तत् परम पुरुष खते गुण तृष्ण
पुरुष के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों
में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना है वह
पर वैराग्य
है पहले बतलाए हुए चित्त की वशी का संज्ञा
रूप वैराग्य
से जब साधक की विषय कामना का अभाव हो जाता
है और उसके चित्त का प्रवाह समान भाव से
अपने धय के अनुभव में एकाग्र हो जाता
है उसके बाद समाधि परिपक्व होने पर
प्रकृति और पुरुष विषयक विवेक ज्ञान प्रकट
होता
है उसके होने से जब साधक की तीनों गुणों
में और उनके कार्य में किसी प्रकार की
किंचन मात्र भी तृष्णा नहीं
रहती जब वह सर्वथा आप्त काम निष्काम हो
जाती
है ऐसी सर्वथा राग रहित अवस्था को पर
वैराग्य कहते
हैं इस प्रकार चित्त वृत्ति निरोध के
उपायों का वर्णन
करके अब चित्त वृत्ति निरोध रूप निर्ब योग
का स्वरूप बतला के लिए पहले उसके पूर्व की
अवस्था
का संप्र ज्ञात योग के नाम से
अवांतर भेदों के सहित वर्णन करते
हैं वितर्क विचारा आनंदा स्मिता अनुग मात
संप्र
ज्ञात वितर्क विचार आनंद और
अस्मिता इन चारों के संबंध से युक्त चित्त
वृत्ति का समाधान संप्र ज्ञात योग
है
व्याख्या संप्र ज्ञात योग के धय पदार्थ
तीन माने गए
हैं पहला ग्रहा इंद्रियों के स्थूल और
सूक्ष्म
विषय दूसरा ग्रहण इंद्रिया और
अंतःकरण तथा तीसरा
ग्रहीता बुद्धि के साथ एकरूप हुआ
पुरुष जब ग्राह्य पदार्थों के स्थूल रूप
में समाधि की जाती
है उस समय समाधि में जब तक शब्द अर्थ और
ज्ञान का विकल्प वर्तमान रहता
है तब तक तो वह सतर्क समाधि है और जब इनका
विकल्प नहीं
रहता तब वही निर् वितर्क कही जाती
है इसी प्रकार ग्राह्य और ग्रहण के
सूक्ष्म रूप में समाधि की जाती
है उस समय समाधि में जब तक शब्द अर्थ और
ज्ञान का विकल्प रहता
है तब तक वह स
विचार और जब इनका विकल्प नहीं रहता तब वही
निर्विचार कही जाती
है जब निर्विचार समाधि में विचार का संबंध
तो नहीं
रहता परंतु आनंद का अनुभव और अहंकार का
संबंध रहता
है तब तक वह आनंदा उगता समाधि
है और जब उसमें आनंद की प्रतीति भी लुप्त
हो जाती
है तब वही केवल अस्मिता अनुग समझी जाती
है यही निर्विचार समाधि की निर्मलता
है इनका विस्तृत विचार इसी पाद के 41 व
सूत्र से 49 वें तक किया गया
है अब उस अंतिम योग का स्वरूप बतलाते हैं
जिसके सिद्ध होने
पर दृष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो
जाती
है जो कि इस शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य
है जिसे कैवल अवस्था भी कहते
हैं विराम
संस्कार
शेषन विराम प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व
अवस्था
है और जिसमें चित्त का स्वरूप संस्कार
मात्र ही शेष रहता
है वह योग अन्य
है साधक को जब पर वैराग्य की प्राप्ति हो
जाती
है उस समय स्वभाव से ही चित्त संसार के
पदार्थों की ओर नहीं
जाता वह उनसे अपने आप उपत हो जाता
है उस उपत अवस्था की प्रतीति का नाम ही
यहां विराम प्रत्यय
है इस उप्रति की प्रतीति का अभ्यास क्रम
भी जब बंद हो जाता
है उस समय चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अ
भाव हो जाता
है केवल मात्र अंतिम उपत अवस्था के
संस्कारों से युक्त चित्त रहता
है फिर निरोध संस्कारों के क्रम की
समाप्ति होने से वह चित्त भी अपने करण में
लीन हो जाता
है अतः प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने
पर दृष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो
जाती
है इसी को असप ज्ञात योग निर्ब
समाधि और कैवल अवस्था आदि नामों से कहा
गया
है यहां तक योग और उसके साधनों का संक्षेप
में वर्णन किया
गया अब किस प्रकार के साधन का उपर्युक्त
योग शीघ्र से शीघ्र सिद्ध होता है यह समझा
के लिए प्रकरण आरंभ किया जाता
है भव प्रत्यय विधेय प्रकृति लया
नाम विधेय और प्रकृति
लय योगियों का उपर्युक्त
योग भव प्रत्यय कहलाता
है जो पूर्व जन्म में योग का साधन
करते-करते
वि अवस्था तक पहुंच चुके
थे अर्थात शरीर के बंधन से छूटकर शरीर के
बाहर स्थिर हो जाने का जिनका अभ्यास दृढ़
हो चुका
था जो महा विदेह स्थिति को प्राप्त कर
चुके
थे एवं जो साधन करते-करते
प्रकृति लय तक की स्थिति प्राप्त कर चुके
थे किंतु कैवल्य पद की प्राप्ति होने के
पहले जिन जिन की मृत्यु हो
गई उन दोनों प्रकार के योगियों का जब
पुनर्जन्म होता
है जब वे योग भ्रष्ट साधक पुनः योगी कुल
में जन्म ग्रहण करते
हैं तब उनको पूर्व जन्म के योगाभ्यास
विषयक संस्कारों के प्रभाव
से अपनी स्थिति का तत्काल ज्ञान हो जाता
है और वे साधन की परंपरा के बिना ही
निर्ब समाधि अवस्था को प्राप्त कर लेते
हैं उनकी निर्ब समाधि उपाय जन्य नहीं
है अतः उसका नाम भव प्रत्यय
है अर्थात वह ऐसी समाधि है कि जिसके सिद्ध
होने में पुनः मनुष्य जन्म प्राप्त होना
ही कारण
है साधन समुदाय
नहीं दूसरे साधकों का योग कैसे सिद्ध होता
है सो बतलाते
हैं श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञा
पूर्वक इतरे
शम दूसरे साधकों का निरोध रूप
योग श्रद्धा वीर्य स्मृति
समाधि और प्रज्ञा पूर्वक क्रम से सिद्ध
होता
है
किसी भी साधन में प्रवृत होने का और अविचल
भाव से उसमें लगे रहने का मूल कारण
श्रद्धा यानी भक्ति पूर्वक विश्वास ही
है श्रद्धा की कमी के कारण ही साधक के
साधन की उन्नति में विलंब होता
है अन्यथा कल्याण के साधन में विलंब का
कोई कारण नहीं
है साधन के लिए किसी अपत योग्यता और
परिस्थिति की आवश्यकता नहीं
है इसीलिए सूत्र का ने श्रद्धा को पहला
स्थान दिया
है श्रद्धा के साथ साधक में वीर्य अर्थात
मन इंद्रिय और शरीर का सामर्थ्य भी परम
आवश्यक
है क्योंकि इसी से साधक का उत्साह बढ़ता
है श्रद्धा और वीर्य इन दोनों का योग
मिलने पर साधक की स्मरण शक्ति बलवती हो
जाती
है तथा उसमें योग साधन के संस्कारों का ही
बारंबार प्राकट्य होता रहता
[संगीत]
है अतः उसका मन विषयों से विरक्त होकर
समाहित हो जाता
है इसी को समाधि कहते
हैं इससे अंतःकरण स्वच्छ हो हो जाने पर
साधक की बुद्धि रितम भरा यानी सत्य को
धारण करने वाली हो जाती
है इस बुद्धि का नाम ही समाधि प्रज्ञा
है अत पर वैराग्य की प्राप्ति पूर्वक साधक
का निर्ब समाधि रूप योग सिद्ध हो जाता
है गीता के अध्याय चार में भी कहा गया
है जितेंद्रिय साधन परायण और श्रद्धावन
मनुष्य ज्ञान को प्राप्त
होकर वह बिना विलंब के तत्काल ही परम
शांति को प्राप्त हो जाता
है अब अभ्यास वैराग्य की अधिकता के कारण
योग की सिद्धि शीघ्र और अति शीघ्र होने की
बात कहते
हैं तीव्र संवेगात्मक
उनका योग शीघ्र सिद्ध होता
है
किंतु मृदु मध्या मातृ त्वा ततो प
विशेष साधन की मात्रा हल्की मध्यम और उच्च
होने के
कारण तीव्र संवेग वालों में भी काल का भेद
हो जाता
है
व्याख्या किसका साधन किस दर्जे का का है
इस पर भी योग सिद्धि की शीघ्रता का विभाग
निर्भर करता
है क्योंकि क्रियात्मक अभ्यास और वैराग्य
तीव्र होने पर
भी विवेक और भाव की न्यूता के
कारण समाधि सिद्ध होने के काल में भेद
होना स्वाभाविक
है जिस साधक में श्रद्धा विवेक शक्ति और
भाव कुछ उन्नत
है उसका साधन मध्य मात्रा वाला
है और जिस साधक में श्रद्धा विवेक और भाव
अत्यंत उन्नत है उसका साधन अधिक मात्रा
वाला
है साधन में क्रिया की अपेक्षा भाव का
अधिक महत्व
है अभ्यास और वैराग्य का जो क्रियात्मक
बय स्वरूप
है वह तो ऊपर वाले सूत्र में वेग के नाम
से कहा गया
है और उनका जो भावात्मक अभ्यांतर स्वरूप
है वह उनकी मात्रा यानी दर्जा
है व्यवहार में भी देखा जाता है कि एक ही
काम के लिए समान रूप से परिश्रम किया जाने
पर
भी जो उसकी सिद्धि में अधिक विश्वास रखता
है जिस मनुष्य को उस काम के करने की
युक्ति का अधिक ज्ञान
है एवं जो उसे प्रेम और उत्साह पूर्वक
बिना उगता करता
है वह दूसरों की अपेक्षा उसे जल्दी पूरा
कर लेता
है वही बात समाधि की सिद्धि में भी समझ
लेनी
चाहिए समाधि की प्राप्ति के लिए साधन करने
वालों में
जिसका साधन श्रद्धा विवेक
शक्ति और भावा आदि की अधिकता के कारण
जितने ऊंचे दर्जे का
है और जिसकी चाल का क्रम जितना तेज
है उसी के अनुसार वह शीघ्र या अति शीघ्र
समाधि की प्राप्ति कर
लेगा यही बात समझाने के लिए सूत्र का ने
उपर्युक्त दो सूत्रों की रचना की
है अतः साधक को चाहिए कि अपने साधन को
सर्वथा निर्दोष बनाने की चेष्टा
रखे उसमें किसी प्रकार की शिथिलता ना आने
दे अब पूर्त अभ्यास और वैराग्य की अपेक्षा
निर्ज समाधि का सुगम उपाय बतलाया जाता
है ईश्वर प्राणि धाना दवा
इसके सिवा ईश्वर प्राणि धान से
भी निर्ब समाधि की सिद्धि शीघ्र हो सकती
है
व्याख्या ईश्वर की भक्ति यानी शरणागति का
नाम ईश्वर प्राणि धान
है इससे भी निर्ब समाधि शीघ्र सिद्ध हो
सकती
है क्योंकि ईश्वर सर्व समर्थ है
वे अपने
शरणापुर
के लक्षण बतलाते
हैं क्लेश कर्म विपा का शायर पराम पुरुष
विशेष
ईश्वर क्लेश कर्म विपाक और आशय
इन चारों से जो संबंधित नहीं है तथा जो
समस्त पुरुषों से उत्तम
है वह ईश्वर
है अविद्या अस्मिता राग द्वेष और
अभिनिवेश यह पांच क्लेश
हैं इसका विस्तृत वर्णन दूसरे पाद के
तीसरे सूत्र से नवे तक है
कर्म चार प्रकार के
हैं
पुण्य
पाप पुण्य और पाप
मिश्रित तथा पुण्य पाप से
रहित कर्म के फल का नाम विपाक
है और कर्म संस्कारों के समुदाय का नाम
आशय
है समस्त जीवों का इन चारों से अनादि
संबंध है
यद्यपि मुक्त जीवों का पीछे संबंध नहीं
रहता तो भी पहले संबंध था
ही किंतु ईश्वर का तो कभी भी इनसे ना
संबंध था ना है और ना होने वाला
है इस कारण उन मुक्त पुरुषों से भी ईश्वर
विशेष
है यह बात प्रकट करने के लिए ही सूत्र ने
पुरुष विशेष पद का प्रयोग किया है
ईश्वर की विशेषता का पुनः प्रतिपादन करते
हैं तत्र निरत शयम सर्वज्ञ
बीजम उस ईश्वर में सर्वज्ञ का बीज कारण
अर्थात ज्ञान निरत शय
है जिससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु हो वह
साति शय है और जिससे बड़ा कोई ना हो
वह निरत शय
है जिससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु हो वह
साति शय
है और जिससे बड़ा कोई ना हो वह निरत शय
है ईश्वर ज्ञान की अवधि है उसका ज्ञान
सबसे बढ़कर है उसके ज्ञान से बढ़कर किसी
का भी ज्ञान नहीं
है इसलिए उसे निरत शय कहा गया
जिस प्रकार ईश्वर में ज्ञान की पराकाष्ठा
है उसी प्रकार धर्म वैराग्य यश और ऐश्वर्य
आदि की पराकाष्ठा का आधार भी उसी को समझना
चाहिए और भी उसकी विशेषता का प्रतिपादन
करते
हैं पूर्वे श्याम प गुरु काले नान व छे
दात वह ईश्वर सबके पूर्वजों का भी गुरु
है क्योंकि उसका काल से अव छेद नहीं
है व्याख्या सर्ग के आदि में उत्पन्न होने
के कारण सबका गुरु ब्रह्मा को माना जाता
है परंतु उसका काल से अव छेद है ईश्वर
स्वयं अनादि और अन्य सब का आदि
है वह काल की सीमा से सर्वथा अतीत है वहां
तक काल की पहुंच नहीं है क्योंकि वह काल
का भी महाकाल
है इसलिए वह संपूर्ण पूर्वजों का भी गुरु
यानी सबसे बड़ा
है सबसे पुराना और सबको शिक्षा देने वाला
है ईश्वर की शरणागति का प्रकार बतला के
लिए उसके नाम का वर्णन करते
हैं तस्य वाचक
प्रणव उस ईश्वर का वाचक नाम प्रणव ओमकार
है नाम और नामी का संबंध अनादि और बड़ा ही
घनिष्ट है इसी कारण शास्त्रों में नाम जप
की बड़ी महिमा
है गीता में भी जप यज्ञ को सब यज्ञों में
श्रेष्ठ बतलाया गया
है
ओम उस परमेश्वर का वेदोक्त नाम होने से
मुख्य
है इस कारण यहां उसी का वण न किया गया
है इसी वर्णन से श्री राम श्री कृष्ण आदि
जितने भी ईश्वर के नाम है उनके जप का भी
महात्म समझ लेना
चाहिए ईश्वर का नाम बतला करर अब उसके
प्रयोग की विधि बताते
हैं उस ओमकार का जप और उसके अर्थ स्वरूप
परमेश्वर का चिंतन करना
चाहिए साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके
स्वरूप का स्मरण चिंतन करना
चाहिए इसी को पूर्वोदय प्राणि धान अर्थात
ईश्वर की भक्ति या शरणागति कहते
हैं ईश्वर की भक्ति के और भी बहुत से
प्रकार
हैं परंतु जप और ध्यान सब साधनों में
मुख्य होने के कारण यहां सूत्र का ने केवल
नाम और नामी के स्म रूप एक ही प्रकार का
वर्णन किया
है गीता में भी इसी तरह वर्णन आया
है इसे उपलक्ष मानकर भगवत भक्ति के सभी
साधनों को ईश्वर की प्रसन्नता के नाते
निर्ज समाधि की सिद्धि में हेतु समझना
चाहिए अर्थात ईश्वर की भक्ति के सभी अंग
प्रत्यंग का ईश्वर प्राणि धान में अंत भाव
समझना चाहिए i
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